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दीवारें

दीवारें

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चंद दीवारों, इक छत को मैं घर नहीं कहता
जहाँ परिंदों का वास नहीं मैं शज़र नहीं कहता।

जिनका कोई भी ताल्लुक ना हो जिंदगी से मेरी
अखबार में छप जाये, मैं खबर नहीं कहता।

ऊँची-ऊँची उठ जायें, बहा लें साहिलों को
जो दिल में न उठ पायें, मैं लहर नहीं कहता।

तिजारती बातें, तन्हा लोग और बंजर सूखे दिल
महज लोगों की भीड़ को मैं शहर नहीं कहता।

दुनिया उनसे खौफज़दा, वो खौफज़दा आईने से
खुद से हारे हुओं को मैं सिकंदर नहीं कहता।

मेरी अना को बेरहमी से चकनाचूर कर देता है
चाहता हूँ कह दूँ मगर मैं पत्थर नहीं कहता।

कहाँ कुछ कहती हैं, कहाँ सुनती हैं ये आँखें 
जो महज देखती हैं उन्हें मैं नज़र नहीं कहता।


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