तपिश ख़्यालों की
तपिश ख़्यालों की
कहूँ कि न कहूँ
कभी कभी लगता है
कि आसमान को एक छोर से खींच
दूसरे छोर तक तह बना कर
समेट के रख लूँ अपने तकिये के नीचे
फिर जब जी चाहे निकाल कर,
पाँव से गर्दन तक
ओढ़ लूँ उस रेशमी अहसास को
बदन में होती ये सिरहन
फिर सुकून पा जाये
शायद ज़मीन के सीने से लिपट कर
या सहला सके, दिल के समंदर में उठती
धड़कनों की लहरों को
शायद नर्म हल्की हरारत
पिघला दे होठों पर जमी शबनम को
देखो न कमबख़्त से ये बादल
कैसे ग़श्त लगाने बैठे हैं आसमान पर
निर्मोही चाँद को देखने ही नहीं देते
तरस जाती हैं आँखें, बरस जाती हैं
पर मन फिर भी बंजर हुआ पड़ा है
जाने कौन सी तपिश लिये ख़्यालों में।