झलक
झलक
तुम्हारी इक झलक के प्यासे थे हम
दिन किस तरह गुज़रे जानते हैं हम ,
कहाँ चले गये थे जुदाईयाँ थमाकर
राहेँ सर उठाकर रहतीँ थी ख़ामोश ,
कोई अपना था जो खो गया था कहीं
भटक रहा था यहाँ वहाँ तलाश लेकर ,
अपनी प्रिय की मौजूदगी की खातिर
तरस गई थी आँखें और मेरे नयन ,
अचानक भँवर मेँ चेहरा उभर आया
खुल गई आँखें और मुस्करा उठे हम ,
क्या प्रशंसा हो उस मनोहर गुलाब की
बिखेर देता है हर तरफ ख़ुश-बू के रंग ,
सीने में तड़प-बेचैनी थी उनके दीदार की
आज मिलन से पाया है हमने कुछ सुक़ून ,
कोई अपना सदियों बाद वापिस आया
मिल गये फिर से वही पुराने रंगीन पल,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,