नारी होना गुनाह है क्या
नारी होना गुनाह है क्या
इक नारी होना गुनाह है,
अपने बारे में सोचना गुनाह है,
या फिर जीना ही गुनाह है,
क्यों हमें अपने जज्बातों को मारना पड़ता है !
क्यों जिंदगी की डोर को लोगों के हिसाब से साधना पड़ता है,
मेरे पैदा होने पर क्यों मातम का-सा माहौल बन जाता है,
क्यों मुझको बोझ समझा जाता है,
नारी हूँ तो पहनने ओढ़ने पर भी सवाल किया जाता है !
मुख से निकले बोल तो उसपर भी बवाल किया जाता है,
न कुछ चुनने की न कुछ करने की आजादी होती है,
इसलिए तो कभी-कभी हम बागी हो जाती हैं,
लड़का और लड़की को आज बराबर बतलाते हैं !
लेकिन करते हैं भेदभाव और अस्तित्व पर मेरे ही,
सवालिया निशान ये समाज वाले अक्सर लगाते हैं,
हर नर मुझको भोगना चाहता है,
क्या मैं सिर्फ भोग विलास की वस्तु हूँ !
क्यों समाज नर को अदब नहीं सिखलाता है,
किसी के लिए मेरे मन में प्रेम आना भी पाप है,
क्योंकि लोग कहते हैं ये कुल की मर्यादा के खिलाफ है,
अपने लिए खुद वर चुनना भी अपराध है !
मेरे जीवन की डोर कब मेरे हाथ है,
किसी अंजान रिश्ते में बांधकर विदा किया जाता है,
बिठा कश्ती में उसको किनारे लगाने का जिम्मा सौंप दिया जाता है !