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एक नज़्म - धुंध के उस पार

एक नज़्म - धुंध के उस पार

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धुंध के उस पार देखना

कभी लाज़मी होता है,

रौशनी की धार

तो मौजूद है उस पार

पर मानते कितने हैं !


बेचैनियों की पतवार संभाले,

न जाने कितने दिन साल गुज़र जाते हैं,

जैसे तैसे दिल ओ दिमाग की ताल

बिठाये रखते हैं लोग,

अन्दर की हाहाकार

जानते कितने हैं!


हर चुपी में भी

एक शोर छुपा होता है

हर मुस्कान के पीछे

दर्द का एक गुब्बारा

छुपा हो सकता है,

इस समंदर के उस पार भी

कहीं किनारा है ज़रूर,

ज़रुरत है तो हिम्मत की,

पर यह नगीना

पास रखते कितने है !


चल दिल,

हौसला फिर बुलंद कर,

बहुत से सिकंदर हारे हुए हैं

इस जहां में,

पत्थरों को चीरकर,

जो गुल खिलते हैं,

ऐसी शख्सियत के लोग,

इस दुनिया में कितने हैं !


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