खुद
खुद
लिखना चाहता हूँ खुद को...
पर खुद से ही अंजान हूँ मैं,
एक भूली-बिसरी खुद की दास्ताँ हूँ मैं...
सोचता हूँ खुद को कहाँ से शुरू करूँ,
हकीकत नहीं, खुद की एक कल्पना मात्र हूँ मैं..
जो ख्यालों में तो है, पर सच में नहीं,
मैं कौन हूँ फिर, क्या हूँ और क्यों हूँ...
मेरा वजूद क्या है,
मैं मिट्टी से बना मात्र एक पुतला हूँ,
जिसे फिर मिट्टी में ही मिल जाना है,
मैं आग हूँ कोई जिसे जल कर राख हो जाना है,
मैं बूंद हूँ कोई जिसे फिर मिल जाना है जाकर सागर में,
या हूँ मैं हवा का झोंका कोई,
जो यूँ ही बहता रहता है, आंधी के साथ..
कई बार मैं खुद पाता हूँ गलियों में इश्क़ की,
हाथ थामे "सखी" का अपनी...
कई बार उलझा पाता हूँ खुद को जुल्फ में उसकी,
मेरे ख्वाबों-ख्यालों की दुनिया में वही तो बसती है,
मेरे दिल-ओ-दिमाग पर छाया रहता है इश्क़
उसका... ये तिलिस्म है उस सखी का की
खुद को भूल बैठा हूँ मैं...
बस एक इश्क़ उससे करते करते...!