बेबस इश्क
बेबस इश्क
होठोंं की हरकतों को दिल की धड़कनों का साथ था।
दिल के बगीचे में खिला ये इश्क उनकी 'हाँ' का मोहताज था।
मेरे इश्क को उन्होंने अपने तन्हा दिल की जरूरत समझा,
हमने भी इस इकरार को अपने नसीब का अच्छा मुहूरत समझा।
बीत गये उन्हींं के साथ कई साल और कई पहर,
ख्यालों में डूबे रहे हम उनके हर शाम और सहर।
सहर के बाद दिल में चुभती काली रात भी आई,
ना जाने क्यों उनके दिल में हमारे लिए कुछ अजीब ख़यालात आये।
एक हीरे की चमक को उन्होंने अंगूठी में जकड़ना चाहा,
हमारे सपनों की डोर को उन्होंनेे अपनी मुट्ठी में पकड़ना चाहा।
समाज के पहरे से ज्यादा अब इश्क का खुद पे पहरा लगा था,
छोटी छोटी बातों से इस दिल पे चोट गहरा लगा था।
फिर कोई आयाा जिसे इस हीरे की चमक को अपनी आँखों में छिपाना था
ऐसा लगा मानो उस कुदरत के तोहफे को हमें अपना बनाना था।
रातें रातें ना रही, सुबह सपनों सी लगने लगी
काली रात में भी झिलमिल उजाले की उम्मीद सी जगने लगी।
जो दूर थे वो पास हुए, करीबियों से दूरी होने लगी
इश्क के समन्दर में तूफ़ान कुछ ऐसा आया कि मैं भी अपनी राहें खोने लगी।
सफेदपोश उजाले ने इन नजदीकियों क अँधेरे में गहराना चाहा
अपने इश्क के परचम को उस हीरे के जिस्म पर फहराना चाहा।
इस हीरे का दिल टुटा था इश्क के आइने में,
दूर बैठे अपने इश्क को पहचाना था उसने सही मायने में।
इस हीरे ने तब उजाले के पीछे छिपे अँधेरे को जाना,
यादों में गुम हुए अपने इश्क के असली रंग को पहचाना।
डर सा लगने लगा अब उजाले में अपनी चमक खोने से।
दिल में आंसू भी ना बचे यूँ घूंट घूंट कर रोने से।
चमक खोने के डर से इस हीरे ने दिल की भावनाओं को खुद से दूर किया,
हीरे की चमक अब कोई ना देख सके इसलिए हीरे ने खुद को ही चूर किया।