देह नही बेचती तो कितना कमाती
देह नही बेचती तो कितना कमाती
रोज चली आती है घर से
ज़िन्दा रखने के लिए कुछ रिश्ते
मीलों पैदल चलकर बेचने को
बदन अपनी नज़रों की ओट से,
चूकि चुपके से आकर
पेट की भूख ओर लाचार पति की बिमारी
फिर से दे जाती है दस्तक,
तब सोंचती है पेट की बात
लाचारी को ही बनाने को
जीने का साधन
और कटा लेकर हाथ में
ढलका देती आंचल
नुचवाती है बदन दोपहर तक
पर काटती है भूख दातुन की शक्ल में जिस्म को
माथे की शिकन फिर खरीदने को
पहूंच जाते हैं लोग उसकी देह
तब पाप का चिंतन क्या करती वो
कम से कम आज उसका पति
और बच्चा जीवित तो हैं!
बमुश्किल लुटा कर देह भले ही
मर जाती ले कर रोज़ी रोटी कमाई
गांव की ओर लौट आती सोचती हुई कि अगर देह नही बेचती तो कितना कमाती ।