लम्हें
लम्हें
लम्हें
लम्हें जब कभी
मिलें जाएँ सुकून के ।
चुरा लूँ इन्हें
और उड़ चलूँ
बादलों संग
गगन की असीम ऊँचाई में
और छू लूँ शून्य शिखर के
अंतिम बिंदु को।
जहाँ बस बसेरा हो
असंख्य तारों का
झिलमिलाती चाँदनी का
और हो हर तरफ़
बस सुकून ही सुकून ।।
मैं कर रहा हूँ
इंतज़ार
आज तक उन लम्हों का
जब बाहों में हो मेरे
प्रकृति स्वरूपी दुल्हन
जो ओढे हो धानी चुनर
जिसके घूँघट पर
हो रजत औंस बूँदें
और फैली हो जिस पर
आफताब की स्वर्णिम चमक।।
लम्हा जो मुझे खींच ले जाए
उस अथाह सागर की गहराई में
जहाँ हों अठखेलियाँ हर तरफ़
और बस मीठी तान सुनाती लहरें
भिगो दे मेरा पूरा बदन
झूम उठूँ मैं और
चलूँ लहरों के संग
चमकती सी झीनी
मखमली रेत पर।।
काश ! आएँ वो लम्हें
जब गुलशन की
हर कली पर
गूँजे भौरों का शोर
जो उन्मादी बन
चिपके बैठे हो रसपान में ।
और सुनता रहूँ बस
दरख्तों पर बैठी कोयल का गान ।।
अभिलाषा में हूँ आज भी
स्वाति के उस हसीन लम्हें की
जब रिमझिम बरसती बदरा में
हो रहा हो चातक का मिलन ।
जब उठ रहा हो पपीहें का स्वर ।
और बुला रही हो विरहण कोई
अपने परदेसी श्याम को।
जो बैठी हो श्रृंगार किए
यौवन का उन्मत रस पिए
नैना पेच लड़ाने को
मगर होती नहीं पूरी
अभिलाषा इस लम्हें की
जी करता हैं।
हर लम्हा बस
लूटा दूँ वतन परस्ती मैं
और ताउम्र गुजरता रहें
हरेक लम्हा मस्ती मैं
जब गुँजे सदाएँ अमनो - चैन की
हो हर दिन "अनमोल "
और रातें अलमस्त नैन की।।
आपका अनुज :-अनमोल तिवारी "कान्हा"