मुझ में मैं ढूंढती हूँ ..
मुझ में मैं ढूंढती हूँ ..
मुझ में 'मैं' ढूंढती हूँ ...
~१~
तोड़ी है मैने बहुत सी दीवारें
जो रोकती थी मुझे मुझ में रहने से
छोड़ा मैने वो बंधन और तोड़ दी बंदिशें
जो मेरे सांस को रोकती थी सांस लेने में
हाँ, मैं आज खुश बहुत हूँ ...
~२~
कुछ साल मैं रोती रही , रोती रही...
कड़ी धूप मैं तपती रही,
घने अंधेरे में डरे हुए सांस रुक जाती थी
रात में डरावने सपने नींद उड़ा देते थे,
डरके मारे भगवान को पुकारती थी
ठंड में कांपती रही,
बारिश में भीगती रही, भीगती रही...
~३~
सुबह जब जब सूरज को देखती थी
पूछती थी प्रकाश पुंज से हर सुबह
दूनिया को रोशनी देने वाले
क्या कभी मेरा अंधियारा मिटा सकते हो ?
थोड़ी सी भी किरण, प्रकाश ना दे पाना
कंजूसी है या फिर विवशता तेरी
तो काहे के तुम प्रकाश पुंज हो ?
~४~
आज मैं, मुझ में 'मैं' को निखारती हूँ
इसी कश्मकश की कोशिश में लगी हूँ
जो खोई थी मैंने ...
दुनिया भर के रिश्ते निभाते निभाते
दूसरों को ख़ुश रख सकूँ
उसी संसार के रिश्तेदारी में
खो दी अपनी ख़ुशी और सपने सारे
~५~
आज दूर हो के उन मतलबी रिश्तों से
थोड़ी सी चैन मिली है स्वतंत्र होने की,
अंग्रेज के गुलामी से जैसे कोई
स्वतंत्रता मिली हो मुझे...
इतनी पीड़ा मिली है मन और रूह को ..
अभी भी डर है मन के हर कोने में
कहीं फ़िर से खो ना दूँ मुझ में 'मैं' ...
~६~
आज थोड़ी सी ख़ुश हो लेती हूँ
मुझ में मैं हो के जी लेती हूँ
मुझ में भी परमात्मा बसते हैं
ढूंढ रही हूँ उस 'मैं' में अस्तित्व अनंत की
परमात्मा को ख़ुश रख सकूँ
इसी कोशिश की कोशिश में हूँ
मुझ में 'मैं' ढूंढती हूँ ....
हाँ, मैं आज खुश बहुत हूँ ....