उफ़ुक़
उफ़ुक़
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उफ़ुक़ पे जाने क्या रखा है
बड़ी फिसलन जान पड़ती है वहाँ
रोज़ देखता हूँ के एक लुहार
कोहसारों की दहकती कोख़ से
एक जलता अंगार लेके निकलता है
उफ़ुक़ से आगे है भट्टी उसकी
हर रोज़ लेकिन फ़िसल के गिर जाता है
और ये दरिया है - जो लील जाती है
सूरज की गोली
घुल जाता है बुझने से पहले सूरज भी
बून्द बून्द रोज़ भरता है सागर तो लेकिन
उसकी भट्टी की आग आज भी सिली सिली सी है
कुछ ग़लता नहीं उसमें
बरसों हो गए कारख़ानों से धुआँ उठे
कब तक चलेगा सिलसिला ये
कोहसारों की कोख़ बुझेगी कभी तो?