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जानती थी माँ

जानती थी माँ

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माँ कभी पोंछती नहीं थी अपने आँसू,

बस दोनों तर्जनी से झटक भर देती थी।


शायद जानती थी माँ,

कि आँसुओं को सहेजना,

उन्हें मान देना

या यादों के संदूक में संजो के रखना,

बनाता है उसे अशक्त,

दयनीय,

खंडित,

और असहाय।


और जानती थी माँ,

कि कठिन समय की कठिन राह पर,

निर्बल बनने की अनुमति नहीं है।


और शायद जानती थी माँ,

कि कुटुंब का स्तंभ

भी वही है,

गृहस्थी की नींव भी,

और उसकी कँपकँपी से भी

तिनका-तिनका बिखर सकता है

घरौंदा उसका।


इसलिए आँखों में आए

अनचाहे आंसुओं को जतला देती थी माँ -

कि कर न सकेंगे वह

उसके घर में घर !

और फिर दोनों तर्जनी से,

ज़ोर से झटक देती थी माँ,

पारदर्शी मोतियों की लड़ी को..


जैसे धूसर परिधान की

धूल झाड़ दी हो !



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