लाल रंग
लाल रंग
उसके गांव में
मौसम नहीँ बदलते ।
सुबह की सूरज के साथ
नदी के किनारे किनारे
खेतों की ओर भागती है
रोज़ रोज़ वही
नन्हें पैरों को
कच्चे मिट्टी पर रखते हुए
उसे थकन मेहसूस नहीँ होती.....।
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शाम ढली...
निशानों को ढूँढ़ने का
वक़्त कहाँ मिला...... ?
सूरज ढल गया
नदी के उस पार
बिना इन्तज़ार किए
पीछे भागते पैरों के....।
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पंछी अपने
बसेरे में छुप
अँधेरी रात को
जाते देखता रहता है.....।
नज़र टिकाये
वह पुरानी घड़ी
वक़्त की परवाह किए बिना
भागता चला जा रहा है.......।
पर वह नन्हे पैर
वापस ना आये
कच्चे मिट्टी पर
निशान बनाये...।
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और एक सुबह –
चील कौओं की भीड़ में
लाल रंग की मिट्टी
और उस मिट्टी पर
वही जाना पहचाना
पैरों के निशान बेकाबू
दर्द भरी चीत्कार में...।
सूरज लाल रंग के साथ
डूब गया
रोज़ की तरह
नदी के उस पार
लाल आसमाँ छोड़ गया......... ।