आहत मन
आहत मन
चित आहत मानस जर्जर है
टूटे सपनो के मनके अब
सुर्ख पलकों से झरते है
दुनिया के सब रंग जान चली
जो तीखा दंशन करते है
दर्द के गीले रस झरते
इन अँखियन भीतर आग जली
सुख चंचल था दु:ख बोझिल है
जिस उरहल में थे मेघ भरे
अब मरूस्थल कण-कण हीय में भरे
सुख सिरहन कभी बसता था यहीं
अब अंतर्मन से आह उठे
ना खुशियों की सौगात मिले
दुनिया के नयनों विष धरे
मैं पग-पग सब पहचान चली
मेरे मासूम मन में कसक भरी
चितवन में हर पल शूल चुभे
निर्जन पथ पर में भाग चली
दुनिया के सब रंग जान चली
क्रंदन छोड़ पैरों पे खड़ी
मैं अब खुद ही लयवान बनी