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"चिरनिद्रा- चिर-विश्रांति

"चिरनिद्रा- चिर-विश्रांति

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नदी के भँवर में घूमते पत्ते से,

जो खिंचता-जाता समाने उसमें, 

जीवन है ड़ूबता- उतराता,

काल के नित गहराते भँवर में,

धवल आकाशगंगा के,

गहन काले गह्वर की मानिंद,

हमें आलिंगन में लेने को आतुर,

ओह ये मृत्यु ...!!

 

शनैः-शनैः सब समाता उसमें, 

धीरे-धीरे खिंचते जारहे,

हम भी नित उसी ओर,

जन्म के साथ ही,

है शुरू होजाती,

यह गणना पलछिन,

यह माटी का पुतला ,

जीवित रहेगा ,

आखिर कितने दिन,

 

उलझते जीवन के व्यापार में यूँ, 

 भाग्य में लिख लाए,

 सहस्त्रों वर्ष ज्यूँ,

करते सब इंतज़ाम ऐसे,

कि यहीं बसना है सदा जैसे ,

धन, संपदा, उपलब्धियों के ,

मद में भरे,

 आसन्न मृत्यु से नितांत परे,

छूद्र व्यवहारों में आकंठ लिपटे,

इस जग की विजय कैसे करें, 

 

बेहद छटपटाती है आत्मा, 

क्यूँ मृत्यु है अवश्यंभावी,

क्यों हर जन्म के साथ है ये जुड़ी,

क्यूँ हम सदा यहाँ रह नहीं सकते,

अमरत्व की लालसा तो,

 देवों में भी प्रबल रही,

 

देती हँस कर उत्तर प्रकृति,

अमरत्व अगर मैं देती ,

तो वापस लेती जन्म भी,

कि फिर न होगी कोई पौध नई,

नई उमंगों, नई जिज्ञासाओं, 

नई आशाओं से भरी,

कि फिर कभी कोई शिशु अथवा 

प्रथम प्रेम होगा ही नहीं, 

तुम्हारे अमरत्व से है ये शर्त जुड़ी,

तब होंगे वही बूढ़े चेहरे,

भार जीवन का ढ़ोते हुए...

तनिक ऐसी कल्पना करो, 

फिर कहो ,

इसका उत्तर क्या हो ....??

 

झरते  हैं पीत पात भी,

स्थान देने नव-कोंपलों को,

सूखते हैं पुष्प भी, 

नवल पुष्पों के आगमन को,

हर पीढ़ी माटी में मिल,

उर्वरा करती है धरती,

नव-पीढ़ी के स्वागत को,

बेतरह थकन के बाद,

एक लंबे दिन की 

विश्राम को आतुर जीव, 

सुप्त होजाता है मगन,

जीवन के बोझ से क्लांत,

जर्जर, खंड़हर शरीर,

तड़पेगा पाने विश्रांति,

स्वयं करेगा रिक्त स्थान ,

ज्यों पूर्वजों ने दिया हमें, 

और छोड़ गए अपने निशान,

ले आमंत्रण नव-जीवन,

ले मुझे अपने आलिंगन, 

दे मुझे विश्रांति, 

मेरी प्रिय -चिर सखी,

अहा मृत्यु ...!!

©अर्पणा शर्मा


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