ग़ज़ल
ग़ज़ल
नफ़रतों के हर ढेर को
आग लगाकर आया हूँ मैं।
नन्हें दीये को सूरज - सा जलना
सिखाकर आया हूँ मैं।।
इल्तिजा, मिन्नत, दरख्वास्त, दुहाई सब कर ली मैंने।
तू भी अपना फ़र्ज़ निभा, ज़िक्र ज़रा कर आया हूँ मैं।।
मैंने याराना बड़ी ही शिद्दत से किया था ए नादान।
ना आना अब कभी, इश्क़ को मनाकर आया हूँ मैं।।
उनकी ख्वाहिश थी कि वे आसमान का माथा चूमे।
नौसिखिये परिन्दों को उड़ना सिखाकर आया हूँ मैं।।
तुम्हारी रात के दामन में होंगी चमक सितारों की।
शब अपनी चंद जुगनुओं से रोशन कर आया हूँ मैं।।
सवारी नाव की औकात से ज़रा मँहगी लगी मुझे।
फ़ासला-ए-दरिया वो तैरकर पार कर आया हूँ मैं।।
समुन्दर की लहरें बस मेरे खिलाफ़ थी इक मुद्दत से।
तोड़कर गुरूर उनका नयी राह बनाकर आया हूँ मैं।।
वो टहनियाँ लबालब थी रंग-बिरंगे कुछ फूलों से।
ज़रा-सी महक के वास्ते शाखें हिलाकर आया हूँ मैं।।
हार मानकर जो मर चुका था वो मुसाफिर मंज़िल का।
जगाकर इक उम्मीद फिर उसे ज़िन्दाकर आया हूँ मैं।।
वो थक-हारकर बैठ गया था क़यामत के इंतज़ार में।
उसे मेहनत की तपन में जलना सिखाकर आया हूँ मैं।।
आज बड़ी तारीफ कर रहे सभी मेरी सफलताओं की।
आसाँ न था, यहाँ तक खुद को मिटाकर आया हूँ मैं।।