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गुज़रे लम्हों के दोबारा पन्ने खोल रही हूँ मैं

गुज़रे लम्हों के दोबारा पन्ने खोल रही हूँ मैं

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गुज़रे लम्हों के दोबारा पन्ने खोल रही हूँ मैं

थोड़े क़िस्से याद हैं मुझको थोड़े भूल गई हूँ मैं 

रोज़ सुब्ह उठ जाया करते हैं मुझमें क़िरदार कई

पर बिस्तर से ख़ुद को तन्हा उठते देख रही हूँ मैं 

सोचा है मैं दर्द छुपा लूँगी अपने आसानी से

सीने में जासूस छुपा है ये क्यों भूल रही हूँ मैं

एक सबब ये भी हँसते-हँसते चुप हो जाने का

अपने ऊपर ज़िम्मेदारी ज़्यादा ओढ़ चुकी हूँ मैं

इसीलिऐ बेसब्र हूँ  उसके मन की बातें सुनने को

अपने मन की सारी बातें उससे बोल चुकी हूँ मैं


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