प्रेमिल प्रीत
प्रेमिल प्रीत
ऋतुराज से तुम मोहक
मैं कोई रश्मि मुग्ध चंचल,
नज़रों से मेरी टकराकर करती
मदिरा पान तेरी मंद-मंद मुस्कान
ओस धुले लब मेरे चुमते लब तेरे
हाला से
आगोश में मुझ को लेती बाँहे कर
आलिंगन पाश
उर से उमड़े अनन्त उर्मिल तप्त
कणों की प्यास
मंजूल मोती बिखराती प्रीत दोनों
उर उल्लास
अभिआमंत्रित कर रही शीत तारों
सजी तुषार की रात
हौले हौले आग उगलती साँसों की
रफ्तार
कर्ण वल्लरी मादक होती सुन तेरे
पदचाप
होठों से जो उभरी तेरे दीपक सी
मुस्कान
दिल पर मेरे बून देती है लय का
एक वितान
मुझे बाँधने आते हो रेशम धागों
संग प्राण,
कर पाओगे भिन्न क्या मेरा तुमसे
जुड़ा अनुराग
घुलकर तुम में हो जाएगा असीम
मेरा लघु आकार
परम पद पर विराजमान हूँ
उर में तुम्हारे राज..!