वो था मुसाफ़िर धूप का
वो था मुसाफ़िर धूप का
एक साइकिल थी,
गमछा था, शर्ट-पैंट,
पीछे एक बोरा था माटी का,
वो था मुसाफ़िर धूप का !
चिलचिलाती धूप में,
जल रहा था घाव बन,
पर उगते डूबते सूरज के बीच,
जी रहा था, किसी की छांव बन !
उसे न जाने क्यों,
धूप काट नहीं रही थी,
मंज़िल की आस में,
शायाद प्यास भी नहीं थी !
पत्नी के ताने,
बिटिया के गाने,
सब छोड़ पीछे,
वो निकला था,
किसी का घर बनाने !
मज़दूर,
हाँ, कहते तो यही हैं लोग उसे,
पर मैंने उसे राही जाना,
धूप का मुसाफ़िर जाना !
वो कमज़ोर-सा शरीर,
कितनी मजबूत इमारतें,
वो रचता है इतिहास,
हर दिन, धूप संग !
काला तन, आँखें पथराई-सी,
काजल है वो किसी रूप का,
वो था मुसाफ़िर धूप का,
वो था मुसाफ़िर धूप का !