तुम कहतें हो
तुम कहतें हो
तुम कहते हो
परे रहो,
निषिद्ध है तुम्हारा यहाँ आना
अछूत हो तुम,
अवशिष्ट स्राव, मान्य नहीं
क्यों, आखिर क्यों?
सुनो नियंताओं!
सुन सको, तो सुनो!
जिन्हें स्थापित किया तुमने
परम शौर्य, पुरुषार्थ और ब्रह्मचर्य का देव
वो भी और तुम भी ..
स्त्री से ही हुए हो निर्मित,
तुम्हारे शरीर की मास -मज्जा और शिराओं का रक्त कैसे पवित्र हो सकता है
जो इसी तिरस्कृत किये गए रक्त का रूपांतरण है
जिसमें शामिल है
नौ माह के दुःख का सच
तुम जानते हो जिसे,
पर मानते नहीं आडम्बर के आवरण में।
उजले वस्त्र नहीं छिपा सकते
मन के गंदे विचार
रजस्वाला द्रोपदी को छूना
क्यों अवर्जित रहा तुम्हारे लिए ?
सुनो,
हमारी आस्था ने ही बाँधे हैं
तुम्हारे लिए बरगद पर रक्षा सूत्र,
और निर्जल श्रद्धा ने ही
सींची है तुम्हारी जीवन रेखा।
सोचो...
जिस दिन भर लेगी
अपनी सोच में ईश्वरों को नकारने का साहस,
महिमामंडित आस्था की मूरतें
हो जाएंगी खंडित,
और श्रद्धा खोल लेगी अपने नेत्र,
ढह जाएंगे तुम्हारें दर्प के मठ।
फिर किससे कहोगे
क्या - क्या कहोगे
अवशेष तलाशते तुम
उसी अवशिष्ट से,
लोगे फिर एक बार नया जन्म।।