मर्म
मर्म
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संवेदनाओं में गुंथा श्वास-निःश्वास के,
स्पंदनो में बसा जीवन बहुतेरों में,
कहीं तुम्हें खोजता है,
ज्ञान में आत्मा की तरह..!
क्या हुआ जो तुम आभास हो,
प्रयास हो, मेरा विश्वास हो,
मगर तुम हो, क्या यह कम है।
मेरे संबल से हेतु तक सफर को।
बिखरो मत, संभलो, उधेड़ो मत, बुन लो
कंकर हैं, बिन लो, पल है, जी लो,
सार्थक कर लो, अर्थ से लबरेज
जाओ, यह जिन्दगी है, इसे जी लो।
शिक्षा होती तो साक्षर करती,
ज्ञान होता तो पंडित गढ़ता,
मगर तुम मर्म हो, जो साक्षर को,
ज्ञान और जिन्दगी को पहचान दे गए।
वाह जिन्दगी, तुमसे जो कुछ भी पाया,
मेरी आत्मा में मर्म, मुझमें उद्भव,
और जीवन को धरा पर साकार कर गया,
श्वास-निःश्वास को तालमय कर गया।