अनबूझ पहेली
अनबूझ पहेली
रात्रि के मध्यान्ह में
मुझे और अपने अंश को छोड़
चल दिये अमृत्व की ओर।
मैं गहन निद्रावस्था में थी
ना जान सकी तुम्हारा त्याग
अकेला छोड़ गये मुझको प्रिय
क्यों लिया मुख मोड़
माना प्रिय मेरी देह
मात्र वस्तु थी तुम्हारे लिए।
मेरे प्राण भी क्या थे वस्तु
अपने अंश का भी ना किया मोह ?
जो आपके कदमों को ना रोक सका
आज भी खड़ी हूँ उसी रास्ते
दिल पुकार रहा है प्रिय तुम्हें।
सूनी आँखों से राह ताकती
जीवन का कोई सुख तुम्हारी यादें
मेरे मनस पटल से ना मिटा सका
तुम्हारी यादें ही मेरे प्राण बन
चलती रही अब तक।
अंक मे तुम्हारे अंश को ले हमेशा
तुम्हारे पथ का अनुगमन किया
सारे भोग विलास त्याग दिये
इस विश्वास में, प्रिय एक दिन
तुम आ अपनी यशोधरा को
सम्भाल लोगे।
वटवृक्ष की घनी छाँव में
विरक्ती के मौन मुखर हो
तुम को बोधिसत्व मिला
ज्ञान बांटते हो जग में।
बुद्ध बन क्या ना जान
पाये अपना कर्तव्य
क्या समझ सके मेरी पीर,
मेरा मन कितना अधीर।
गृहस्थ धर्म ही सबसे बड़ा,
ना हुआ कर्तव्य बोध
क्या नहीं हुआ मुझे छोड़
अपराध बोध ?
जब जाना ही था तुमको घर छोड़
क्यो मेरी मांग भरी ?
क्यों ना निभाये सातो वचनों को ?
ये कैसी अनबूझ पहेली
प्रिय बोधिसत्व पाकर भी ना जान सके
पति धर्म।