कठपुतली
कठपुतली
कभी-कभी लगता है
कि हम जैसे बस एक कठपुतली बनकर रह गए हैं
जहाँ ना हम अपनी मर्जी से चल सकते हैं
हमें चलाया जाता है
ना अपनी मर्जी से बैठ सकते हैं
हमें बिठाया जाता है
ये ना करो, वो ना करो
हमेशा अपने इशारों पर ही नचाया जाता है
जब बचपन में थे
तो यहाँ मत जाओ, ये मत करो, वो मत करो
लाखों बंदिशें लगा दी गई
लड़की नहीं कोई कैदी हो जैसे
खुद की पहचान ही मिटा दी गई
फिर ना चाहते हुए भी
हमें पढ़ने से रोक दिया जाता है
घर के कामकाज करो, ससुराल में काम आएगा
बचपन से यही सिखाया जाता है
फिर एक दिन जबर्दस्ती एक ऐसे बंधन में बांध दिया जाता है
जिसकी ना हमें समझ होती है
ना दिल में इसकी कोई ख्वाहिश होती है
बस समाज के डर से कच्ची उम्र में ही
परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ सर पे डाल दिया जाता है
शादी हो गई अब खुद के लिए तो कोई जिंदगी ही नहीं
हमेशा दूसरों के मुताबिक हमें चलाया जाता है
यहाँ मत बैठो ये मत करो ना जाने तरह-तरह का पाठ पढ़ाया जाता है
घूमना-फिरना सब बंद कर
हमारी तो हर ख्वाहिश को ही दफनाया जाता है
कभी पति का सोचो
कभी बच्चों का सोचो
कभी पूरे परिवार के लिए सोचो
अपनी जिंदगी के लिए कभी सोच ही नहीं पाते
बचपन से जो सपने इन आँखों में होते हैं
चाह कर भी उन्हें कभी सच नहीं कर पाते
छोटी-छोटी बात के लिए भी इतना सुनाया जाता है
मानों हम कोई इंसान नहीं
सिर्फ़ एक कठपुतली हैं
जिन्हें जब चाहा अपने इशारों पर नचाया जाता है...