ग़ज़ल
ग़ज़ल
उनके पहलू से ऐसे लगे कि मरे बैठे हैं।
एक क़यामत की सदी से गुज़रे बैठे हैं।
मुल्के-सियासत तू इस तरह इम्तिहान न ले
हम भी कबसे अंदर तक भरे बैठे हैं।
लोग दोनों तरफ से कट-मर जाऐं तो क्या
महकमे सारे हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं।
ख़ुद अपने ख़िलाफ़ इस्तेमाल होना बंद कर
वो तेरी ही बदौलत अब तक सँवरे बैठे हैं।
अपनी दहलीज़ से उठाकर चलता कर उन्हें
बेमतलब जो तेरे दिलो-दिमाग पे पसरे बैठे हैं।
कम से कम आँखों के साथ तो अंधा न हो
तुझे इल्म नहीं है, वो क्या क्या करे बैठे हैं।
आला दर्ज़े के डरपोक हैं, क़बूलते हैं हम
आजकल लोगों की भक्ति देख के डरे बैठे हैं।