कारवाँ
कारवाँ
सूरज की तपिश
ये ग्रीष्म की उष्णता
हर पग धरती पर मुश्किल
फिर भी है साथ काफ़िला।
ये ऊँट रेगिस्तान का जहाज
मेरा साथी
मेरे साथ चला
मंजिल दूर तलक है
दिखे न कोई सहारा
भारी गर्मी में
मैं चल चल कर हारा।
प्यास से सूखता कंठ
पर मंजिल तक कि है उत्कंठा
हौसला मेरा बढ़ाता जाए
मेरा ये काफ़िला।
कितने साथी पीछे छूटे
कितने प्यास में प्राण को छोड़े
मृगतृष्णा सा कभी भटकता
पर प्रहरी सा मेरे साथ है चलता।
मेरे हर कदमों के पीछे
मेरे ऊंटों का काफिला
न बदली
न बारिश की बूंद कहीं
उस पर ये रेतीली हवाएँ।
देखूं दूर तलक कभी
दिखे न कोई छाँव कभी
संघर्षो की जमी
ये रेगिस्तान है।