इमारत और खंडहर
इमारत और खंडहर
बेबस उजड़ा सा चमन
कहता है अतीत की कहानी
कभी थी वो इमारत बुलन्द
अब रह गई बस निशानी
कभी थीं जहाँ भर की रौनकें
अब हर जगह छायी वीरानी है
कभी जो था सजा सँवरा
आज है बस बिखरा बिखरा सा
पर ये तो है दुनिया का दस्तूर
जो चमकता, वह फ़ीका पड़ता ज़रूर
जो भी सूर्य की तरह चढ़ता
साँझ होते ही ढल जाता है
शिखर तक पहुँच मानुष
भी वहाँ कहाँ टिक पाता है
जिसकी है आज क़िस्मत रोशन
कल वही हाथ से निकल जाती है
इमारत हो या आम आदमी दोनों
बुलन्दी से ख़ाक का सफ़र करते एक सा
है रीत यही दुनिया की
कामयाबी-नाकामयाबी है
एक ही सिक्के के दो पहलू
बस यही बात समझनी है
सफलता के दर्प में हो चूर
असफलता नहीं भुलानी है
पाँव सदा रहे ज़मीन पर
बस उम्मीदों की पतंग उड़ानी है
बुलन्द इमारत कब खंडहर बन जाये
ये सोचना बेमानी है