ग़ज़ल
ग़ज़ल
चाँद से है, या है तुमसे चाँदनी ?
चाँद था , पर थी न पहले चाँदनी
देर तक छत पे टहलता मैं रहूँ
और पहलू में हो मेरे चाँदनी
हाल क्या होगा तेरा ओ चन्द्रमा
जा रही हूँ , जो ये कह दे चाँदनी
रात भर आवारगी करती है क्यों
किसकी चाहत में है भटके चाँदनी
आग बरसाने को काफ़ी हैं पलाश
क्या ज़रूरी है कि निकले चाँदनी ?
रात की दहलीज़ पे बैठा है दिन
बस ये ख़्वाहिश है कि आए चाँदनी !