मैंने कभी भी लड़कियों को छेड़ा नहीं
मैंने कभी भी लड़कियों को छेड़ा नहीं
मैंने कभी भी लड़कियों को छेड़ा नहीं।
कभी गली, चौराहे, बस स्टॉप पर
स्कूल, कॉलेज, दफ्तर से आते-जाते हुए उनपर
अश्लील या सामान्य फब्तियाँ नहीं कसीं।
कभी लेक्चर या प्रैक्टिकल लैब में
या लाइब्रेरी में पढ़ते वक़्त उनको घूरा नहीं।
कभी बस, ऑटो या ट्रेन में बैठते हुए
उनसे चिपकने की कोशिश नहीं की।
कभी बाइक, साईकिल या पैदल
उनका उनके घर तक पीछा नहीं किया।
शादी या किसी अन्य समारोह में
किसी लड़की से पहचान बनाने फ़ोन नंबर
लेने में खास दिलचस्पी नहीं दिखाई।
कभी फेसबुक या वाट्स-एप पर उनको लाइन मारने
की दो कौड़ी की कोशिश नहीं की।
इसकी वजह कभी भी वक़्त या मौके की कमी
या लड़कियों में दिलचस्पी न होना नही रहा
दरअसल एक ख्याल इसके पीछे रहा, एक ख्याल कि
कहीं मेरे घूरने, पीछा करने, चिपकने, फब्तियाँ कसने से
उन लड़कियों की रूह पर लगे वो घाव फिर हरे न हो जाएँ,
जो रोज़ उन्हें कहीं न कहीं, कभी न कभी वक़्त बेवक्त लग ही जाते है
और उनकी नज़र में मर्दों की एक नफ़रत भरी तस्वीर खीचतें हैं।
साथ ही एक डर भी रहा कि कहीं मेरे छेड़ने का कदम
उनकी बंधी हुई आज़ादी को और सीमित न कर दे जो
उनके घर वाले पहले ही तमाम शक और चिंता के चलते
हर दिन कम करते जा रहें हैं।
इस पूरी प्रक्रिया के दौरान ऐसा नहीं था कि सब सामान्य रहा
मैं कई बार छेड़ा गया हूँ लड़कियों द्वारा
कभी किसी ने आशिक, शायर, रेडियो कहकर मज़ाक ली
तो किसी ने मुझे मेरे इश्क़ का नाम ले लेकर चिढ़ाया
कई दफा कई लड़कियाँ मुझे हँसकर नहीं देखकर हँसती रही
कुछ ने क्लास में पीछे की सीट पर बैठकर मेरी कमीज़ पर कुछ
अनसुने अनजाने अजनबी नाम और पते लिखे।
मगर इस छेड़े जाने में कुछ भी अजीब या असहज करने वाला नहीं था
इन सब लम्हों में जो मासूमियत थी वो मेरे बड़े काम आई।
मेरी हर गज़ल, हर कविता, हर गीत ऐसी ही तमाम
छोटी बड़ी चटपटी नटखट अठखेलियों, शरारतों का ही तो नतीजा है
इस पूरे छेड़ने और छेड़े जाने के सिलसिले में एक बात निकल कर आई।
छेड़ना और छेड़ा जाना सबको पसंद होता है, सबको, जब तक
किसी के जिस्म, आज़ादी, रूह को निगलने की कोशिश न हो।