बेवकूफ़ आदमी
बेवकूफ़ आदमी
नफ़रतों की आग जल रही थी सीने में
समारोह में जाने की ज़रुरत क्या थी ,
सगे संबंधियों को खुश नहीं देख सकते
नशे में वार्तालाप की जरुरत क्या थी ,
एक पैग पचा नहीं सके वो आज तक
फालतू पैग पीने की जरुरत क्या थी ,
सही से बात नहीं कर सकते किसी से
पीकर गाली बकने की जरुरत क्या थी ,
हाथापाई में सामना नहीं किया जाता
रणभूमि से भागने की जरुरत क्या थी ,
बात सिर्फ बर्फ सी थी मिटने लगी थी
दोबारा घी डालने की जरुरत क्या थी ,
मन में बदले की भावना ने लिया जन्म
घटिया से षड्यंत्र की जरुरत क्या थी ,
पैसों का इतना ज्यादा हुआ था घमंड
लाखों पैसे कमाने की ज़रुरत क्या थी ,
बाहर उनसे मुकाबला नहीं कर सके
घर में घुसने की उसे ज़रुरत क्या थी ,
ढूँढने पर भी ना मिला वो अत्याचारी
यूँ डरकर भागने की ज़रुरत क्या थी