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कविता: सब ख़त्म

कविता: सब ख़त्म

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किस्सा सुनाने वाली,

अपनी बुढ़िया नानी ख़त्म।

परियाँ, सरियां पैदा करती,

तिलस्मी बच्चेदानी ख़त्म।


बड़े हो गए भाई-बहना,

बच्चों की नादानी ख़त्म।

उग गई दीवारें आँगन में,

मिल्लत की बगवानी ख़त्म।


वो गाँव के मेले बाजे-गाजे,

बिन पैसे की फुटानी ख़त्म,

खो गई रौनक बाज़ारों की,

बहलावे की दुकानी ख़त्म।


प्रीत बिसरी,

तल्ख़ी पसरी,

मौसी,मामा,मामी संग,

रिश्तों की रवानी ख़त्म।


बोझ अपनों की परेशानी का,

फ़िक्र की छीनाछानी ख़त्म।

रोते थे जब हम सच्चे आँसू,

मरहूमों की वो उठवानी ख़त्म।


वो हाट, बाट, गैल, गामा,

नुक्कड़ की खाक़छानी ख़त्म।

खो गए सब यार-अहबाब,

गाँव की मेहमानी ख़त्म।


सूख गए सब कुएँ वहाँ के,

वो लज्ज़त वाला पानी ख़त्म।

था वहाँ का मौसम बसंती,

अब वो फ़िज़ा धानी ख़त्म।


तंगदिली में ईदी ख़त्म,

वो रस्में फगुआनी ख़त्म,

पड़ोस के ज़ुम्मन चाचा की,

सेवइयां और बिरयानी ख़त्म।


लिये डाकिया फिरता था जो,

नामा वो रूमानी ख़त्म।

सारा मुहल्ला घर था अपना,

फ़ितरत वो ईमानी ख़त्म।


हुए परदेशी, बिका मकाँ,

देश का दाना-पानी ख़त्म।

पुश्तैनी रिहाईश का वो,

किस्सा जावेदानी ख़त्म।


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