किस राह जाएँ हम
किस राह जाएँ हम
इस दिल की लगी आग को,
किस तरह बुझाएँ हम,
जब जलती हो रूह तो कहो,
किस राह जाएँ हम ।
कहीं उठता देख धुआँ,
फिर ये सुलग़ उठी हैं,
अब है यही तदबीर कि,
जिस्म को जलाएँ हम ।
जिन मरासिम की आग में,
जूफिशाँ है ये आशियाँ,
उन्हीं निस्बत की ख़ाक़ में,
खुद को दबाएँ हम ।
जलने को तो जलती है,
इक शमा भी दयार में,
किसे दीग़र की सूरत-ए-शमा,
ये दिल जलाएँ हम ।
जहाँ की सुनें, या दिल की करें,
समझ नहीं आता,
चाहते हैं वो की, ज़मीर की लाश,
खुद ही उठाएँ हम ।
नज़र ने देखे नज़ारे,
पर यूँ न कभी होते देखा,
अपने जिग़र की राख को,
बदमस्त उड़ाएँ हम ।
ज़माने ने इतना सताया,
कहीं अब आये न चैन,
अब तो है ये आलम 'शौक़',
खुद को सताएँ हम ।
क्यों ग़म-ए-राह में,
किसी को शरीक़ अब करें,
अपनी मय्यत में भी अब तो,
अकेले आएँ हम ।
दर्द जब आदत बना,
किस तरक़ीब से छोड़ दें,
दाम-ए-शुनीदन देखकर,
ख़ुद को फसाएँ हम ।
लुट गए सर-ए-रहग़ुज़र,
औरों का क़सूर क्या,
ग़ौर करें तो इस दिल ही को,
ख़तावार पाएँ हम ।
ख़लिश ग़र जिस्म में हो,
जिस्म ही को मिटा दें,
है ख़लिश मगर रूह में,
तो कैसे मिटाएँ हम ।
रिश्तों को हासिल रहा,
दर्द-ओ-अश्क़-ओ-रंज-ओ-ग़म,
बेहतर है उन रिश्तों को,
अब भूल ही जाएँ हम ।