खेल मदारी का
खेल मदारी का
बंदर और बंदरिया लेकर
आया एक मदारी
उसे राज्य में देख प्रसन्न
हुए सारे दरबारी
राज्य जहाँ धोखेबाजी का
लफंगई का चलता
गुण्डागर्दी का सिक्का था
टकसालों में ढलता
चोर जहाँ चोरी करके
सीनाजोरी करते थे
बड़े-बड़े हाक़िम-हुक्काम
लुटेरों से डरते थे
भ्रष्टाचार ख़ूब फल-फूल
रहा था जिसके अन्दर
जिसके राजा की हरकतें
देख शरमाऐ बंदर
राजा के दरबारी चोर-
उचक्के अपराधी थे
राजा सुबह-सबेरे
दारू पीने के आदी थे
बेशर्मी कपड़े उतारकर
नाच जहाँ करती थी
मर्यादा सौ सौ आँसू
पीकर पानी भरती थी
रानी झीने वस्त्र पहन
सिगरेट का धुआँ उड़ाती
राजा को उँगली के
संकेतों पर नाच नचाती
जनता रोष भरी थी
भीतर-भीतर सुलग रही थी
उसकी सहनशीलता की
चीनी दीवार ढही थी
सभी किसानों, मजदूरों ने,
बुद्धिजीवियों ने मिल
एक उपाय निकाला सुनकर
सबके चेहरे खिलखिल
एक युवा-धर भेस मदारी,
राजमहल के बाहर
दिखा बजाता डमरू, साथ
लिये बंदरिया -बंदर
उसके साथी अनगिन दर्शक
चारों ओर खड़े थे
देख निकम्मापन राजा का
भीतर से उखड़े थे
हँसिया और हथौड़ा, खुरपी
जो भी उनके पास
उसे छुपाऐ वस्त्रों में
लेते थे लम्बी साँस
खेल देखने पहुँचे राजा
के भी कुछ दरबारी
बंदर और बंदरिया ने
मारी लम्बी किलकारी
दरबारीजन उन्हें देखते
होते लोटमपोट
उन्हीं नहीं था पता कि जनता
के मन पर है चोट
खेल देखने में निमग्न जब
राजा के दरबारी
उन्हें ख़त्म करने की
जनता ने कर ली तैयारी
एक छोड़कर काम तमाम
किया सबका जनता ने
भागा वह राजा के सम्मुख
दुखड़ा अपना गाने
राजा-रानी सेनापति को
लेकर बाहर आये
उन्हें देख क्रोधित जनता ने
नारे बड़े लगाऐ
पाँव लड़खड़ाते राजा के
मस्ती में रानी भी
उतर गया था सेनापति की
आँखों का पानी भी
राजा, रानी, सेनापति को
घेर लिया जनता ने
और मौत के घाट उतारा
लगी नाचने-गाने
खेल दिखानेवाला पढ़ा-लिखा था
नहीं मदारी
उसके कन्धों पर डाली
जनता ने ज़िम्मेदारी
जनता का शासन आया
बदहाली से छुटकारा
चोर, लफंगों, लुच्चों को
जनता ने चुनकर मारा
घूसखोर, भ्रष्टाचारी को
फाँसी पर लटकाया
स्त्री, दलित, निबल को,
अल्पसंख्यकों को हर्षाया
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई
जाति-धर्म से ऊपर
जनता का यह राज्य बढ़ चला
प्रगति-मार्ग पर सत्वर