Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

स्वीकार

स्वीकार

2 mins
14.1K


तुम स्वीकार करोगे साथी

मुझे भी

जैसे स्वीकार करती है रेत

अपनी छाती पर चहलकदमी करते

अजनबी, आवारा पैरों को

सहज, उन्मुक्त भाव से

और उन्हें अंकित होने देती है

स्वयं में

कहीं गहरे तक

तभी उकेर पाता है

कोई पथिक

अपनी आहट, निरुद्देश्यता

और अपनी विकलता को भी

अपनी उदारता और नम्रता के सहारे

रेत बिछ जाती है

किसी कोरे स्लेट सा

लकीरों को

उनका भरपूर फैलाव देने के लिए

तब रेत और उस पर भटकते प्राणी के बीच

अस्थाई ही सही

मगर एक रिश्ता कायम हो जाता है

भरोसा है मुझे भी

ऐसा ही कोई रिश्ता खिल उठेगा

मेरे-तुम्हारे बीच

अकड़ आई इस सूखी डंठल पर

जब हम थोड़ी कोशिश करेंगे

अपने अंदर की पीली पड़ती हरियाली को

बाहर पसरने देने की

बस कुछ दिनों की बात है

तुम मेरे चेहरे से,

चेहरे की ख़ामोशी  से

मेरी बातों से,

बातों के खुरदरेपन से

मेरे कहने की वक्रता

और उसके उतार-चढ़ाव से

पहले अवगत हो जाओ ज़रा

और तुम्हें मेरा यह प्रकट अलगाव

बहुत अजीब और पराया न लगे

कहीं किसी कोण से

मैं तुम्हें तुम्हारी जात का ही लगूँ

जब तुम यह जान जाओगे कि

मैं भी तुम्हीं में से एक हूँ

और जो मैं कह रहा हूँ

वह कहीं से भी

तुम्हारे अहित में नहीं है

और तुम्हारी स्वयं की बातों से

उनका कुछ विरोध भी नहीं है

तब देखना

तुम स्वीकार करोगे मुझे

और संभव है कि

तब मैं तुम्हें अतिरिक्त रूप से

अच्छा लगने लगूँ

हालाँकि मैं तब भी वही रहूँगा

जो पहले था

जब तुम मुझे नापसंद कर रहे थे

हो सकता है कि तब मैं

तुम्हें कुछ विशेष प्रीतिकर लगने लगूँ

वह इसलिए कि

अपने प्रति

तुम्हारी लाख हिक़ारतों के बावजूद

मैंने तुम्हें नापसंद नहीं किया कभी

और यह तुम्हारे लिए

एक नई बात थी

क्योंकि तुम्हें अब तक

नफ़रत के बदले नफ़रत का

फ़लसफ़ा ही समझाया गया था

संभव है

तुम तुम थोड़ा चौंको

मगर तुम भी धीरे-धीरे

इस धारणा के

अभ्यस्त हो जाओगे  

कि कोई ज़रूरी नहीं है कि

 

हम वही लौटाएँ सामने वाले को

जो वह हमें दे

क्योंकि कुछ भी हो

हम इतने सपाट और चमकीले

ख़ैर बिल्कुल नहीं हो सकते कि

हम एकदम से परावर्तित कर दें

ख़ुद तक पहुँची

अच्छी-बुरी किसी किरण को

यांत्रिक भाव से

और रहकर विज्ञानसम्मत

कुछ भी हो

हैं तो आख़िर हम इंसान ही

किसी सूत्र, सिद्धांत से

बंधकर और अक्सरहाँ उनके बाहर

जानता हूँ

तुम स्वीकार करोगे साथी

मुझे भी एक दिन

जैसे मैं

तुम्हें स्वीकार करता आया हूँ

अबतक

अंतरंग और सहर्ष भाव से.


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract