दीदार-ए-यार
दीदार-ए-यार
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धड़का था दिल जब ज़ोर से पहला प्यार ही तो नहीं था ?
रहता मुझको रात दिन उसका इंतज़ार ही तो नहीं था ?
ना बाग़ में लगता था दिल ना वीराने में क़रार आता था
आता था दिल को चैन जहाँ तेरादयार ही तो नहीं था ?
कोशिश कर ली लाख मगर लबों से कह ना पाए कभी
आँखों ने किया जो आँखों से वो इक़रार ही तो नहीं था ?
किसको ख़ुदा का ख़्याल था बुतख़ाने कब हम जाते थे,
फिर सजदों का मक़सद दीदार-ए-यार ही तो नहीं था ?
यूँ तो एक सुकून था दुनिया की कोई ना फ़िक़्र हमको,
बस अपने दिल पर ख़ुद को इख़्तियार ही तो नहीं था !