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“कविता जब जब सत्ता का गुणगान सुनाने लगती है”

“कविता जब जब सत्ता का गुणगान सुनाने लगती है”

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कविता जब जब सत्ता का गुणगान सुनाने लगती है
उस दिन कविता मर जाती है जब सत्य छुपाने लगती है
गुणगान सुना कर सत्ता का जो लाल बत्तियाँ पाते हैं
ख़ुद उनका तो क्या कहना सारे कुल का मान घटाते हैं
कभी कवि पर होता है सत्ता का कोई प्रभाव नहीं
सत्ता के आगे झुक जाऐं ये कवियों का स्वभाव नहीं
कवि है समाज का आईना कवि तो समाज का दर्पण है
प्रतिकूल समय में भी कवि कभी करता नहीं समर्पण है
सारे कवियों से कहना है इसका पूरा सम्मान रहे
इसका शीश न झुकने पाऐ जब तक तन में प्राण रहे
इसका सम्मान बढ़ाने में कितनों ने तन मन वार दिया
कुछ ने इसको पूजा माना कुछ ने कैसा व्यवहार किया
कवियों को ही गढ़नी होगी भारत माँ की तस्वीर नई
जो सच लिखेगा कविता में बस कहलायेगा वीर वही
कवियों पर जिम्मेदारी है उस कुल का मान बढ़ाने की
दिनकर ने मार्ग दिखाया था उस पर बढ़ते ही जाने की
सत्ता के सिंहासन को दर्पण तुमको दिखलाना है
कविता में सच को लिखना है तुमको इतिहास बनाना है


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