घड़ी
घड़ी
नीरस मौन को तोड़ती
कानों में गूँजती
टिक टिक टिक टिक
चलती ही जा रही हैं
कितना सताती हैं न
ये घड़ी की सुइयां भी।
नींद में भी टेंशन
सुबह कहीं उठने में
देर न हो जाये
नाश्ते में देर न हो जाये
दफ्तर को देर न हो जाये।
थोड़ी थोड़ी देर में
अनायास ही नज़रें
दीवार पर चली ही जाती हैं
दीवार पर लटके लटके।
मुँह चिढ़ाती सी
मुस्कुराती है वो
हमारी बेबसी पर।
इनकी गति से भी तेज़
हो जाती है मेरी गति
हाथ चलने लगते हैं झटपट
पाँव दौड़ते हैं सरपट
हो जाते हैं काम सब फटाफट।
घंटे कब मिनट में बदल जाते हैं
देखते ही देखते मिनट
बन जाते हैं सेकेंड।
कभी कभी लगता है
रोक लूँ इन्हे यहीं पर
पर ये रुकगीं क्या
आदत है इन्हें तो
हम सबको नचाने की
और अगर रुक भी जायें तो
क्या समय रुकेगा।
कभी कभी लगता है
सब घड़ियां उतार दूँ घर की
और छुपा दूँ कहीं अटाले में।
पर इनकी टिक टिक
तो भी गूँजती रहेगी कानों में
आदत जो पड़ गयी है
इनको मेरी जिंदगी में घुसपैठ करने की
और मुझे इनकी मर्जी से चलने की।