एक टुकड़ा छाँव
एक टुकड़ा छाँव
अब तो जेठ की,
दुपहरी भी आ गयी है,
मगर तुम्हारा आना,
ना हुआ अभी तक।
मौसम के साथ-साथ,
मेरे माथे की तपिश भी,
बढ़ती हीं जा रही है।
मैं बैरागिनता की बेड़ियों में,
अब जकड़ती-सी जा रही हूँ,
इन सूखी हवाओं ने अब,
मेरे चमड़ियों की नमी को,
सुखाना शुरू कर दिया है।
और तुम्हारे अभाव ने,
मेरे लहू को,
तुम जाते वक़्त,
जिस घूँघट के तले,
मुझे छोड़ गए थे।
वो आज पहली दफ़ा,
मुझे छाँव देने के काम आई हैं,
और अब जब मैं इन्हें,
रुख़्सत करने की सोचती हूँ।
तो मुझे डर लगता है की,
कहीं ये ग़र्म हवाओं के थपेड़े,
मेरे मुँह को काला ना कर जाएँ।
मैं अब इस सुलगती बंजर जमीन में,
इक कैक्टस के बीज की भाँती,
जिम्मेदारियों के पैरों तले बोई जा रही हूँ।
जिसका उद्देश्य विकसित होकर,
सिर्फ़ ज़िन्दा रहना है,
ज़िन्दा तुम्हारे इंतज़ार में।
ज़रूरतों की आपाधापी ने,
इस कदर बेहाल किया है की,
मैं थककर अब कहीं भी सो जाती हूँ।
और ख़्वाबों में भी,
बस इंतज़ार हीं देखती हूँ,
इंतज़ार तुम्हारे आने का।
अच्छा सुनो,
तुम आओ तो,
एक टुकड़ा छाँव का लेते आना,
ज़िन्दगी की उलझनों में,
अब झुलस रहा है मेरा वजूद।