लपटें
लपटें
मुझ से लपटें
उठ रही हैं,
आग हूँ मैं ,
ज़िंदा आग
आग भी भला
कभी मरती है ?
वह तो शाश्वत
ज़िंदा है
किसी न किसी
में हमेशा ।
सब कहते थे,
धूल है, राख है,
खंडहर है,
रेगिस्तान है ,
अरे ! श्मशान है
कुछ नहीं है
फिर यकायक
एक दिन, भयानक
तीव्र, विशाल
अद्वितीय, लपटें
लपटें उठ रहीं थीं।
जल रहा था मैं ,
प्रह्लाद की तरह
मेरा बाल भी
बांका न हुआ,
इस प्रचंड
ज्वाला में।
सच ये आग
ये लपटें
मुझसे ही
उठ रहीं थीं।
करोड़ों सूर्यों
के समान,
ऊर्जा-उष्मा-
ताप-तेज
था मुझ में,
मुझे अनुभव
होता था।
यह उत्साह
की लपटें थी
आशा की
लपटें थी
ये नये सवेरे की
नयी उमंगों की
लपटें थीं।
मैं उपकृत
हुआ माँ।