मरीचिका
मरीचिका
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कितनी मरीचिकाओं से घिरी मैं
ख़ुद को ख़ुद में ढूँढा करती मैं
कितने अलग से निरपेक्ष से तुम
मुझ में रह कर भी अलग खड़े तुम
कितना ही अच्छा होता
मैं तुम को ख़ुद मैं ढूँढ पाती
कितना ही अच्छा होता
तुम मुझे मेरे लिये ढूँढ पाते
प्यास बढ़ती है मरीचिकाओं में
आस जगती है मरीचिकाओं में
मिले न कुछ भी पर मरीचिकाओं में
भरी हथेली भी ख़ाली मरीचिकाओं में