यथार्थ!
यथार्थ!
शायद आज से पहले कभी...
इतना क़रीब हम आए ही नहीं
पर आज मैं हमेशा की तरह
सिर्फ़ तट पर ही खड़ा न रहा,
बस दूर से तुम्हें देखते हुए...
तुम्हारे इस उग्र रूप के कारण
दिल में एक भय सा लिए हुए!
और आज जब वो हिचकिचाहट
आख़िर कर ही दी मैंने ख़त्म
तो तुम्हारी ओर बस सहज ही
जैसे बढ़ चले मेरे क़दम…
जब दूरियाँ मिटीं तो यह जाना
तुम एक भयावह समुद्र कहाँ हो
तुम तो बस एक लहर-मात्र हो!
जो बस कुछ दूर से ही एक...
प्रचंड-रूप धारण किये आती हो,
परन्तु थोड़ा पास आते ही जैसे
मेरे क़दमों से लिपट जाती हो...!!