जननी
जननी
मुझे रचने वाली उस रचना को क्या रचूँ
जिस के आगे मेरे ये शब्द बहुत छोटे है
उस जननी को कैसे जन्म दूँ मै मेरी कविताओं में
क्यूँकि उस ने ही तो मुझे अपने पर चलना सिखाया है।
उस के अक्षरों से ही तो मैंने शब्दों का महाकुंभ पाया है
कैसे उस मिट्टी की मुरत को गढूँ मैं मेरी मिट्टी से
क्यूँकि मेरी मिट्टी मे भी तो उस मुरत की ही महक और अंश है
उसकी रंगत मे कैसे अपने पसंद के रंग भर दूँ।
जबकि मुझे उसकी ही रंगत से मिला है मेरा अस्तित्व मेरी पहचान
मैं मेरे छोटे से लिबासों में कैसे जकड़ लूँ उसे
वो भी तो उसके ही द्वारा दिए गए हैं मुझे
मैं एक बड़ी सी कहानी की एक छोटी सी रचना।
हमेशा रहना चाहती हूँ छोटी ही
ताकि खेल सकूँ एक छोटे शब्द की तरह
मुझे जन्म देने वाली कहानी की गोद में
मैं सिर्फ और सिर्फ पढ़ना चाहाती हूँ।
मैं रच नहीं सकती अपने शब्दों में भी
उस रचना को जिसने मुझे रचा है।