अर्जुन और कृष्ण
अर्जुन और कृष्ण
नहीं कर सकूँगा लक्ष्यभेद अब केशव
द्रोणाचार्य के आगे
नतमस्तक होना भी मुमकिन नहीं
पितामह की वाणशय्या के निकट बैठ लूँगा
पर, कोई अनुभव,
कोई निर्देश नहीं सुन सकूँगा।
निभाऊँगा पुत्र कर्तव्य माता कुंती के साथ
पर उनकी ख़ामोशी को
नज़रअंदाज नहीं कर सकूँगा
पूरे हस्तिनापुर से मुझे रंज है
जिसने भ्राता कर्ण का परिचय गुप्त रखा
और मेरे हाथों ने उनको मृत्यु दी।
नहीं केशव नहीं
अब मैं गीता नहीं सुन सकूँगा !
अर्जुन,
गीता तो मैं कह चुका
सारे प्रश्न-उत्तर दिखला चुका
पुनरावृति की ज़रूरत मुझे है भी नहीं
ज़रूरत है तुम्हारे पुनरावलोकन की ...
सही है,
कैसे नज़रअंदाज कर सकोगे तुम
कुंती की गलती को
तुम बस द्रौपदी को दाव पर लगा सकते हो
दीन हीन देख सकते हो चीरहरण !
अभिमन्यु की मौत पर
बिना सोचे संकल्प उठा सकते हो ...
तुम्हें ज़रूरत ही क्या है
औरों की विवशता समझने की
क्योंकि तुम्हारी समझ से
एक तुम्हारा दुःख ही प्रबल है !
अर्जुन, मैं भी जानता था कर्ण का सत्य
कुंती को दिए उसके वचन के आगे
उसके रथ से मैंने तुम्हें दूर रखा
उसकी मृत्यु का कारण उपस्थित कर
तुम्हें जीतने का अवसर दिया।
मेरे दुःख
मेरी विवशता का
तनिक भी एहसास है तुम्हें ?
एहसास है तुम्हें मेरी उस स्थिति का
जब मैंने द्रौपदी को भरी सभा में
मुझे पुकारते पाया ...
धिक्कार है अर्जुन
तुम कभी गांडीव रख देते हो
कभी अपनी सारी सोच
खुद तक सीमित कर लेते हो !
खैर, कभी कर्ण की जगह खुद को रखो
जिसने समस्त पीड़ा झेलकर भी
कुंती को खाली हाथ नहीं लौटाया
पाँच पुत्रों की माँ होने का दान दिया
अपने पुत्र होने का धर्म इस तरह निभाया ...।