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आत्मा के हथियार, कागज़ कलम दवात

आत्मा के हथियार, कागज़ कलम दवात

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किसी मौन सुखनवर की

आत्मा से

गुंजायमान होकर 

जब आनंदित अंबार उठता है 

तब दिल के भीतर कंपन उठता है..


सुषुप्त पड़े हिमखण्डों से एक

उर्जा उभर रही हो बर्फ़ानी

मंद-मंद मलय सी जैसे..

तब उँगलियाँ मचल उठती है,

कलम का हथियार ढूँढती

कागज़ के सीने पर वार करने

स्याही सा खून बहाने..!


तो कभी ज़लज़ले आते है 

तब ग़म की गर्द से 

दर्द की चिंगारियाँ उठती है 

जैसे धधकते ज्वालामुखी से

निकल रहे हो लबकते शोले...


दिल की दलदली ज़मीन के भीतर

पड़े एहसासों को मिलता है 

अनुभूतियों का आवेग तब

प्रस्फुटन होता है 

कुछ भटकते यायावरों से शब्दों का...

 

दिमागी बादलों में उमड़-घुमड़ कर 

आह्वान होता है एहसासों का 

कुछ सूखे समिध से जलकर लौ

लगा देते है यज्ञ सी,

तो

गीले, नम और सुबकते एहसास

धुँआं-धुँआं सा आँखें जला जाते है....



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