कायनात ख़ुदा लगती है
कायनात ख़ुदा लगती है
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हंसी तेरी गालों पे, जो भंवर बना उड़ती है,
और कभी उन गालों पे, शर्म सदा पलती है,
नज़र जो यूँ मुझे , वफ़ा अदा करती है
, उसी नज़र के दम पे, कायनात ख़ुदा लगती है ।
स्पर्श तेरे होठों का, और सांस नई भरती है ,
और कभी उन हाथो से, डाँट डपट पड़ती है,
कमर की ये लचक जो, घायल किया करती है,
उसी कमर के बल पे, कायनात ख़ुदा लगती है ।
बिखरी व सुलझी कितनी , अंगड़ाइयां पलती हैं,
और कभी मेरी साँसों में, इनकी प्यास रहा करती है,
तेरे होठो को छू लूँ , ऐसी आस जगा करती है,
इन्ही होठो क बल पे, कायनात ख़ुदा लगती है ।
तेरे लिए ही दिल ये, बारम्बार तुझे अर्पित है,
तेरी वफ़ा जो पा लूँ , उम्मीद जगा करती है,
इसी उम्मीद के बल पे,
तू ही खुदा लगती है, तू ही खुदा लगती है ।