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व्यर्थ है ज़िंदगानी मेरी

व्यर्थ है ज़िंदगानी मेरी

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मुझे गैरो से क्या मतलब,

मुझे अपनों से क्या मतलब।

अपने भी बेवफ़ा निकले,

गैर तो गैर ही थे।


जिसको अच्छे से समझा था,

फिर भी उसको समझ नही पाया।

वक़्त का दस्तूर मुझे रास नही आया,

उनको जो करना था वो कर दिया।


रिश्ता तोड़ना था वो तोड़ दिया,

बीच भंवर में छोड़ना था वो छोड़ दिया।

शायद वक़्त को यही मंज़ूर होगा,

इस ज़माने की रीत समझ नही पाया।


ना जाने सही वक़्त कब किसका आया,

जिसने जिसको चाहा वो मिल नही पाया।

आखिरी में दिल दर्द ही दर्द ही पाया,

इस जमाने के लोग भी बड़े अजीब होते है,

वो अपनों को ही ठोकर देते है।


समझ में नही आता क्या करूँ मैं ?

उनकी यादो में तो हम तो रो देते है।

जिसको माना था मैंने अपना,

उन्ही से धोखा खाया हूँ।


दिल्लगी की हमने उनसे,

फिर भी उनके दिल में

जगह नही बना पाया हूँ।

ना समझ रहा मेरा दिल,

शायद यही सज़ा रही मेरी।

इतना प्यार करके भी,

ज़िंदगी बर्बाद हुई मेरी।


किस हाल में हूँ किसको बताऊँ,

कौन सुनता ये कहानी मेरी।

जो सुनने वाला था वो बेवफ़ा निकला,

अब व्यर्थ है ये ज़िन्दगानी मेरी।


बेइंतेहा मोहब्बत की हमने उनसे,

शायद यही खता थी मेरी।

वक़्त वहीं रहा बस वो बदल गया,

इतनी ही है बस कहानी मेरी।


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