जीवन कैसा लगता है
जीवन कैसा लगता है
जब आग लगी हो अंतस में
जब प्राण छूटने वाले हो
जब हृदय पटल में कसे हुए
सब तार टूटने वाले हो
जब उलझन में मन उलझा हो
और चारों ओर अंधेरा हो
जब मन मंदिर के दीपक को
तूफानों ने आ घेरा हो।
जब रात घनेरी होती है
आशा का सूरज ढलता है
तब आकर के पूछो हमसे
जीवन कैसा लगता है।
जब जीवनदीप की बाती को
कुछ तेल चाहिए होता है
जब स्वयं स्वयं को लिए स्वयं के
मेल चाहिए होता है।
जब अधर किसी रमणी के
उस मधुशाला जैसे लगते हैं
सुंदर गोल कपोलों में जब
पुष्प कमल के खिलते हैं।
जब बात किसी की होती है
और ज़िक्र किसी का चलता है
तब आकर के पूछो हमसे
जीवन कैसा लगता है।
जब मज़हब लड़ने जाते हैं
शहरों में दंगा होता है
छोड़ छाड़ कर शांति प्रेम
जब मानव नंगा होता है।
धरा रक्तरंजित होकर जब
फूट फूट कर रोती है
जब समय पतन का आता है
तब मानवता सोती है।
जब अपना प्यारा सुंदर घर
इस घृणा द्वेष में जलता है
तब आकर के पूछो हमसे
जीवन कैसा लगता है।
जब याद किसी की आती है
सावन की काली रातों में
और नींद बिखर सी जाती है
गीली गीली सी बातों में।
जब अश्रु नयन से बहते हैं
इक वार हृदय पर होता है
जब विरह वेदना से मेरी
संग अम्बर मेरे रोता है।
जब पल भर को ये जीवन ही
जीवन पर भारी लगता है
तब आकर के पूछो हमसे
जीवन कैसा लगता है।
जब भूतकाल में घटित हुए
कुछ दृश्य सामने आते हैं
जब हृदय ग्लानि के दीमक
मिल कर वर्तमान को खाते हैं।
जब लगता है जीवन के
कुछ पृष्ठ दुबारा लिख डालूँ
समय चक्र की रेखा को इक
अंतिम बार बदल डालूँ।
जब जब नयनों में कोई
इक स्वप्न पुराना पलता है
तब आकर के पूछो हमसे
जीवन कैसा लगता है।
जब हृदय मचलता है ऐसे
जैसे मतवाला बादल हो
जब होती मन में गुंजन है
जैसे बजती वो पायल हो।
जब रोम रोम से ख़ुशी और
उल्लास झलकता दिखता है
जब घर आँगन भी कलरव से
दिन रात चहकता दिखता है।
जब नींद कहीं खो जाती है
और दीप प्रेम का जलता है
तब आकर के पूछो हमसे
जीवन कैसा लगता है।
जब कभी ग़रीबी ने आकर
जीना मुश्किल कर डाला हो
मज़बूरी और लाचारी ने
मिल कर स्वप्नों को पाला हो।
जब निर्धनता की मिट्टी में
इक ज्ञान पुष्प को खिलना हो
जब वर्तमान हो विवश और
सुंदर भविष्य की गणना हो।
जब अंधकार से भरे सफ़र में
दूर उजाला दिखता है
तब आकर के पूछो हमसे
जीवन कैसा लगता है।