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तुम्हारी कमी अखरती है बहुत

तुम्हारी कमी अखरती है बहुत

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जाने क्यूँ आजकल तुम्हारी कमी अखरती है बहुत

यादों के बंद कमरे में ज़िन्दगी सिसकती है बहुत

पनपने नहीं देता कभी, बेदर्द सी उस ख़्वाहिश को

याद तुम्हें जो करने की कोशिश करती है बहुत

इस क़दर समझदार, हो गई है अब ये ज़िन्दगी


कुछ बोलने से पहले आजकल सोचती है बहुत

महसूस करो तुम भी, उस परछाई का दर्द कभी

भीड़ में होकर भी वो जो अकेली रहती है बहुत

जाने क्या हो जाता है, कभी कभी इस ज़ुबान को


दिल की बात कहने में ये जो अटकती है बहुत

तन्हाई के वक़्त अक्सर, तन्हा सर्द रात कोई

गुज़रे लम्हों को याद कर आहें भरती है बहुत

जाने किस मोड़ पर, ले आई है ये तक़दीर हमें

के ज़िन्दगी भी अब तो जीने से डरती है बहुत।



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