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रंग और लकीरें

रंग और लकीरें

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रंग और लकीरें

 

मैं चाहता हूँ
कुछ लिखना
दे दो मुझे वो कलम 
जिसकी स्याही में रंग न हो 
दे दो मुझे वो कागज़ 
जिसमें लकीरें न हों 
खूब परख चुका हूँ मैं 
कि रंग और लकीरें 
दोनों सिर्फ बांटती हैं
और मुझे सिर्फ 
एक करना आता है.

 

तंग आ चुका हूँ मैं 
इन लाल हरी जंजीरों से 
तंग आ चुका हूँ मैं 
ज़मीन पर खिंची लकीरों से
(और मैं ज़ोर से चिल्लाता हूँ )
अरे कोई है-
जो मेरी आवाज़ सुन सके 
अरे कोई है-
जो मुझे थोड़ी सी जगह दे सके 
जहाँ मैं-
खुल के हंस सकूँ 
और-
खुल के रो सकूँ 
जहाँ मैं-
खुल के सो सकूँ 
और जहाँ मैं-
सिर्फ और सिर्फ 
आदमी हो सकूँ.

 

 

राजीव पुंडीर.

 


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