स्त्री
स्त्री
न पूछ कहाँ, कब टूटी हूँ
खुद से कितना मैं रूठी हूँ ,
फैला है कलेवर मुस्कानों का
भीतर ही भीतर रोती हूँ,
हर हक अदा करके भी मैं
रही सदा बड़ी उत्पीड़ितहूँ ,
ढलता सूरज जीवन का
अन्धियारों संग ही रहती हूँ,
सेहराओं से टकराकर
लहरों सी यहाँ वहाँ बहती हूँ ,
है दूर किनारा जीवन का अभी
जाने कितनी दफ़ा मैं भटकी हूँ,
पीड़ा का आभूषण कर धारण ,
गिरती और कभी सँभलती हूँ,
बोझ लिये रिश्तों का मैं कभी
राह नहीं भटकती हूँ ,
सौंदर्य और प्रेम का एक अप्रितम
एक निश्छल सा प्यारा संगम हूँ
खौफ़ खाओ ए-भस्मासुर
मैं भी हान्ड़ -मास की हूँ ,
मैं कोमल और सुकोमल
ममता की मूरत स्त्री हूँ