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Aman Sinha

Abstract

4.7  

Aman Sinha

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ज़िन्दगी की तलाश

ज़िन्दगी की तलाश

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न खबर है राह की न मजिंल का ठिकाना है

खुद की तलाश में हमखुद को भुलाए जा रहे हैं।

नज़्म है न कोई हुंज़ाइश ऐ तराना है

अंजान अल्फ़ाज़ को खुद का बताए जा रहे हैं।


फलक के अक्स में हम तैरते हुए

उस पार हो भी जाए तो हासिल क्या है

वैशाखियों को पतवार बनाकर

किश्ती को हम चलाए जा रहे हैं।


हमने अक्सर दूसरे के निगाह में

खुद को देखने की कोशिश की

अपने घर का वो आईना आज भी

हम यु ही भुलाए जा रहे हैं।


पास इतने था मेरे की छूटता ही नहीं

हाथ अपना हम छुड़ाए भी तो कैसे

दूर इतना हुआ हमसे सुन नही पाता

खुद को उसके नाम से बुलाए जा रहे हैं।


हर छोड़ पर लगा ये मंज़िल है

पास आते ही नया मोड़ हो गया

चल के थक चुके दौड़ के हांफ चुके

हम रेंगते हुए अब भी कदम बढ़ाए जा रहे हैं।


जितने भी भागे इसके पीछे

गवाकर अपना सब कुछ यहाँ

संत फ़क़ीर पोप सभी क़तार में पास पास है

अपनी पारी का इंतज़ार किये जा रहे हैं।


स्वर्ग, जन्नत, हेवेन हर जुबान में

नाम कई है इसके यहां पर

राह सबकी है जुदा सभी से

पर सब उसी पर चले जा रहे हैं।


कई वजह है जो की हमे

ज़िंदा रख सकती है अब भी

उनके ही एवज़ में हम

मौत का सामान लिए जा रहे हैं।


हर घूंट से ज़िन्दगी अगर

घट भी जाए तो परवाह क्या

हम ज़िन्दगी का जाम सब पर

यूँ ही लुटाए जा रहे हैं।


उम्र बीत गयी बिखरे पन्नो

को एक साथ समेटते हुए

हम नई उलझन में रोज़

बस उलझते जा रहे हैं।


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